सवाल भाषा का नहीं वजूद का है

सवाल भाषा का नहीं वजूद का है



            मायड़ भाषा राजस्थानी की संवैधानिक मान्यता का मुद्दा राजनीति के गलियारों में उलझ कर रह गया है। गत साठ वर्षों से गांधीवादी तरीके से चल रहे शांतिपूर्ण जन आंदोलन के प्रतिफल के रुप में थोथे आश्वासनों के अलावा कुछ भी नहीं मिला है जिससे अब राजस्थानी मोट्यारों का धैर्य जबाब देने लगा है। गौरतलब है कि अषोक गहलोत के नेतृत्व वाली पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार ने ही 25 अगस्त 2003 को प्रदेश की विधानसभा से राजस्थानी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने का संकल्प पारित कर केन्द्र को भिजवाया था। अब केन्द्र व राज्य दोनों में कांग्रेस सत्तारूढ है। केन्द्रीय गृह राज्य मंत्री संसद के अन्दर व बाहर कई मर्तबा राजस्थानी को संवैधानिक मान्यता का प्रस्ताव रखने का भरोसा दिला चुके है। प्रदेष की जनता उस दिन का बेसब्री से इन्तजार कर जब उनकी जबान पर लगा ताला खुल जाएगा व राजस्थान की मायड़ भाषा को देष की 22 अन्य भाषाओं की तरह भारतीय संविधान में बराबरी का दर्जा हासिल होगा।


गत विधानसभा व लोकसभा चुनावों में राजस्थानी का मुद्दा केन्द्र में रहा है। अखिल भारतीय राजस्थानी मान्यता संघर्ष समिति के बेनर तले चल रहे आन्दोलन को व्यापक जन समर्थन मिला है। रचनाधर्मियों के अलावा बड़ी संख्या में विद्यार्थी-युवा वर्ग इस संधर्ष में भागीदार बना है। प्रदेष के कई स्थानों पर "भासा नीं तो वोट नीं" के नारे के साथ प्रदर्शन हुए। बीकानेर में संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी की सभा में मुंह पर सफेद पट्टी बांध कर मान्यता नहीं मिलने की पीड़ा का इजहार किया गया। चुनावी समर में उतरे प्रत्याशियों से भाषाई मान्यता के मुद्दे पर जवाब तलब किया गया। उम्मीदवारों ने भी राजस्थानी के मान्यता के प्रति अपनी निष्ठा जताई तथा मायड़ भाषा में प्रचार कर मतदाताओं को लुभाने का प्रयास किया। मतदान पूर्व जनमत संबंधी चर्चाओं में राजस्थानी की मान्यता का मुद्दा शीर्ष वरीयता में उभर कर सामने आया। कांग्रेस व भाजपा के अलावा बसपा, इनेलो, जद आदि दलों के नेताओं ने प्रत्येक राजस्थानी के आत्मसम्मान हेतु मायड़ भाषा की मान्यता का पुरजोर समर्थन किया।
अपने पुरातन साहित्य, समृद्ध व्याकरण, वृहत शब्दकोश एवं राजस्थानी भाषी विशाल जनसमुदाय के कारण राजस्थानी पूर्ण रूप से एक वैज्ञानिक भाषा है। भाषा-भाषियों की दृष्टि से राजस्थानी का भारतीय भाषाओं में सातवाँ तथा विश्व भाषाओं में सोलहवाँ स्थान है। राजस्थान के अलावा गुजरात, पंजाब, हरियाणा व मध्यप्रदेश के सीमावर्ती क्षेत्र के लोग रोजमर्रा की जिन्दगी में राजस्थानी भाषा का प्रयोग करते है। पाकिस्तान के सीमावर्ती क्षेत्रों में राजस्थानी सहजता से बोली-समझी जाती है। वहाँ राजस्थानी भाषा से नाता रखने वाली कई संस्थाएँ भी सक्रिय है। वर्ष 1994 में पाकिस्तान के राजस्थानी लेखकों एक दल जोधपुर से प्रकाषित ’माणक‘ पत्रिका के कार्यालय आया। राजस्थानी लोक साहित्य की विषाल सम्पदा है जिसमें यहाँ के लोकाचार, इतिहास, संस्कार व राग-रंग की थाती सुरक्षित है। ’ढोला मारू रा दूहा‘ तथा ’वेली क्रिसण रूकमणी री‘ जैसी उत्कृष्ट कृतियों की रचना राजस्थानी में हुई है। जिस भाषा में 20 हजार प्रकाषित ग्रंथ तथा तीन लाख से अधिक हस्तलिखित पांडुलिपियां मौजूद है। आठवीं सदी के ऐतिहासिक साक्ष्यों में जिसकी चर्चा मिलती है। जार्ज ग्रियर्सन, डा. एल. पी. टेस्सीटोरी, रवीन्द्रनाथ टैगोर जैसे विद्वानों ने बगैर किसी विवाद के जिसे समर्थ भाषा स्वीकार किया है, उस भाषा को मान्यता के लिए 63 वर्षों का इन्तजार हमारे समय की एक विडम्बना नहीं तो भला क्या है?
राजस्थानी के स्वतंत्र व समर्थ भाषा है। जब यहां के लोग हिन्दी को प्रथम राजभाषा स्वीकार करते हुए द्वितीय राजभाषा के रूप मंेे अपनी मायड़ भाषा की मांग करते है तो भला ऐतराज क्यों ? जबकि हिन्दी भाषी हरियाणा में पंजाबी व दिल्ली में पंजाबी व उर्दू को संयुक्त रूप से द्वितीय भाषा का दर्जा दिया गया है।
संसार की समस्त भाषाओं की अपनी बोलियां है, जो उसकी समृद्धि की सूचक मानी जाती है। जिस तरह अवधी, बघेली, छत्तीसगढी, ब्रज, बांगरू, कन्नोजी, बुंदेली व खड़ी बोली का समूह हिन्दी की धरोहर है वैसे ही वागडी, ढूंढाणी, हाड़ौती, मेवाड़ी, मेवाती, मारवाड़ी, मालवी आदि बोलियां राजस्थानी की का गौरव बढ़ाती है। बोलियों की विविधता के बावजूद राजस्थानी का एक मानक स्वरूप तय है जो पूरे प्रदेश में सहज स्वीकृत है।
राजस्थानी जीवंत भाषा है। भक्ति, ज्ञान, श्रृंगार व वीरता से परिपूर्ण राजस्थानी साहित्य में हमारे देष के एक हजार वर्षो के राजनैतिक-सांस्कश्तिक-धार्मिक अतीत के साक्ष्य सुरक्षित है। जैन धर्म के मनीषी साधुओं ने अपनी ज्ञान रा्शि को राजस्थानी भाषा में रचित ग्रन्थों में संजोया है। महाराणा प्रताप, रामदेवजी, तेजाजी, करणी माता, गोगाजी, जाम्भोजी, जसनाथ जी, मीराबाई, आचार्य तुलसी, जैसे भक्तों- शूरों की मातृभाषा राजस्थानी ही है। केन्द्रीय साहित्य अकादमी राजस्थानी को स्वतंत्र भाषा मानते हुए प्रतिवर्ष श्रेष्ठ पुस्तकों पर पुरस्कार देती है। राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी राजस्थान सरकार द्वारा स्थापित स्वायत्त संस्था है। राजस्थानी में दर्जनों पत्रिकाएँ नियमित प्रकाशित होती है। राजस्थानी संगीत की कर्णप्रिय धुनें सात समन्दर पार भी सुनी जाती है। राजस्थानी सिनेमा भी धीरे-धीरे अपना प्रभाव जमा रहा है। राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश के दर्जनों विश्वविद्यालयों में राजस्थानी साहित्य पर शोध कार्य हुए है तथा आज भी शोधार्थी राजस्थानी साहित्य सम्पदा से हरदम कुछ नया प्राप्त करते है।
इन्टरनेट पर भी इन दिनों राजस्थानी भाषा व साहित्य छा रहा है। नेट के माध्यम से दुनियां भर का राजस्थानी समाज अपनी सांस्कृतिक विरासत से नाता जोड़ रहा है। वेबपत्रिका नेगचार, जनवाणी परलीका, ओळखांण, आपणो राजस्थान, मनवार आदि दर्जनों राजस्थानी वेब पत्रिकाएं हैं जो राजस्थानी को विश्व व्यापक पहचान दिला रही है।
अब यह स्पष्ट हो चुका है कि राजस्थानी को मान्यता नहीं मिलने की मूल वजह राजनैतिक इच्छाशक्ति का अभाव है। प्रदेश के सांसद इस गंभीर मुद्दे का मुखर ढंग से उठाने में नाकाम रहे हैं। सवाल केवल भाषा का नहीं है बल्कि हमारे वजूद का है। इस तरह एक ओर यह प्रदेश की सांस्कृतिक अस्मिता का प्रश्न है वहीं युवा वर्ग राजस्थानी को मान्यता नहीं होने को अपनी बेरोजगारी का प्रमुख कारण मान रहा है। अब समय आ गया है कि राजस्थानी को संवैधानिक मान्यता देकर 8 करोड़ लोगों की भावनाओं का सम्मान किया जाए। राजस्थानी राजस्थान की तो अस्मिता है ही, देश का भी गौरव है। महाकवि कन्हैयालाल सेठिया के शब्दों में कहें तो "राजस्थानी रै बिना क्यारों राजस्थान।"
लेखक राजस्थानी की मान्यता के आन्दोलन से जुड़े हुए हैं

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