हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी राजस्थान दिवस की धूम है। प्रदेश में ही नहीं, विदेशों में भी प्रवासी राजस्थानी इस दिन को हर्षोल्लास से मनाते हैं। गत कई वर्षों से देखने में आया है कि राजस्थान में ही राजस्थानी भाषा और संस्कृति से जुड़े कार्यक्रमों को बहुत कम स्थान दिया जाता है। सच तो यह है कि भाषा संस्कृति की संवाहक होती है और उसी से किसी भू-भाग की पहचान सुरक्षित रहती है। राजस्थानी भाषा की उपेक्षा कर हम अपनी पहचान खोते जा रहे हैं। ऐसे में हमें यह भी याद रखना चाहिए कि जिस भाषा के नाम पर इस प्रांत का नाम पड़ा, उसकी कितनी कद्र हम और हमारी सरकार कर रही है।
1828 ई. में प्रकाशित अपने इतिहास ग्रंथ 'एनाल्स एण्ड एंटीक्वीटीज ऑफ राजस्थान' में कर्नल जेम्स टॉड ने सबसे पहले 'राजस्थान' शब्द का प्रयोग किया। जॉर्ज ग्रियर्सन ने 1907-08 ई. में अपनी 'लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया' पुस्तक में राजस्थान में बोली जाने वाली समस्त बोलियों को एक कुटुम्ब माना और राजस्थान प्रदेश की भाषा को 'राजस्थानी'नाम दिया। भाषा के आधार पर ही राजस्थान प्रांत का गठन और नामकरण हुआ, मगर कालांतर में यहां की महान संस्कृति और समृद्ध भाषायी परम्परा हाशिए पर रख दी गई।
राजस्थान दिवस के अवसर पर आयोजित कार्यक्रमों में हमें अपनी महान भाषा और महान संस्कृति के प्रति सम्मान प्रकट करने के लिए राजस्थानी कार्यक्रम आयोजित करने चाहिएं। सुनीति कुमार चाटुज्र्या, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, मदनमोहन मालवीय, राहुल सांकृत्यायन, काका कालेलकर और डॉ. एलपी टैस्सीटोरी तथा ग्रियर्सन जैसे देशी-विदेशी विद्वानों ने जिस भाषा के महत्त्व का बखान किया, वह भाषा संविधान की आठवी अनुसूची में स्थान पाने को तरस रही है, तो हमारा चिन्तन-मनन इस दिशा में भी होना चाहिए।
25 अगस्त 2003 को राजस्थान विधानसभा में एक सर्वसम्मत संकल्प प्रस्ताव पारित किया गया कि राजस्थानी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किया जाना चाहिए, मगर सात वर्ष से यह मामला केन्द्र सरकार के पास लम्बित है। 17 दिसम्बर 2006 को केन्द्रीय गृह-राज्यमंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल ने राज्य सरकार के संकल्प का हवाला देते हुए लोकसभा में बताया था कि केन्द्रीय गृह-मंत्रालय ने राजस्थानी एवं भोजपुरी की संवैधानिक मान्यता का विधेयक बजट सत्र 2007 में लाने पर सैद्धांतिक मान्यता प्रकट कर दी है। सदन के पटल पर मंत्री द्वारा सरकार के संकल्प को प्रकट किए हुए चार वर्ष हो चुके हैं और चौथा बजट सत्र आ रहा है तथा प्रदेश वासियों को अपनी मायड़भाषा की मान्यता के विधेयक का बेसब्री से इंतजार है। वहीं राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी की सारी व्यवस्थाएं गत तीन वर्षों से ठप है।
प्रदेश के माध्यमिक और उच्च माध्यमिक विद्यालयों में शिक्षा का स्तर सुधारने के उद्देश्य से राजस्थान शिक्षा विभाग ने हाल ही में 'माध्यमिक शिक्षा अभियान' चलाया है। इस हेतु अन्य सामग्री के साथ-साथ विद्यालय पुस्तकालयों में पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों की खरीद हेतु विशेष बजट आवंटित किया गया है। जिला शिक्षा अधिकारियों ने बाकायदा पत्र-पत्रिकाओं और किताबों की एक सूची जारी की है और संस्था प्रधानों को उस सूची में से ही किताबों की खरीद करने को पाबंद किया है। ताज्जुब की बात तो यह है कि किसी भी जिले की सूची में राजस्थानी की पत्र-पत्रिकाओं और किताबों का नाम शामिल नहीं है। क्या राजस्थान के विद्यार्थियों को राजस्थानी भाषा, साहित्य और संस्कृति का ज्ञान नहीं करवाया जाना चाहिए? राजस्थान में नहीं तो क्या पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र आदि प्रांतों के स्कूली पुस्तकालयों में राजस्थानी की पुस्तकों और पत्र-पत्रिकाओं को स्थान मिलेगा? तो फिर सवाल यह भी उठता है कि सरकार ने राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी की स्थापना क्योंकर की और क्यों राजस्थानी लेखकों को प्रोत्साहन की डींगें हांकी जाती हैं।
गौरतलब है कि देश के लगभग हर प्रांत में वहां की प्रमुख भाषा को प्रथम भाषा के रूप में स्वीकार किया जाता है और सारा राजकाज उसी भाषा में चलता है। वही भाषा शिक्षा के माध्यम के रूप में प्रचलित है। मसलन पंजाब में पंजाबी, गुजरात में गुजराती, महाराष्ट्र में मराठी, आंध्र प्रदेश में तेलुगु, अरुणाचल प्रदेश में असमिया, बिहार में मैथिली और हिन्दी, गोआ में कोंकणी, जम्मू-कश्मीर में उर्दू, झारखंड में संथाली, कर्नाटका में कन्नड़, केरला में मलयालम, मणिपुर में मणिपुरी, उड़ीसा में उडिय़ा, सिक्किम में नेपाली, तमिलनाडु में तमिल, प. बंगाल में बंगाली आदि। इन प्रांतों में हिन्दी, अंग्रेजी या किसी अन्य भाषा को प्रांत की द्वितीय राजभाषा के रूप में अंगीकार किया गया है। यहां तक कि दिल्ली और हरियाणा राज्यों में तो पंजाबी को द्वितीय राजभाषा का दर्जा दिया गया है। दूसरी और राजस्थान राज्य का हाल यह है कि यहां की प्रमुख भाषा राजस्थानी राज्य की प्रथम राजभाषा बनने की अधिकारिणी है, मगर उसे द्वितीय तो दूर तृतीय भाषा के रूप में भी स्वीकार नहीं किया जाता। राजस्थान के स्कूलों में संस्कृत, उर्दू, गुजराती, सिंधी, पंजाबी, मलयालम, तमिल आदि भाषाएं तो तृतीय भाषा के रूप में पढ़ाई जाती हैं, मगर अपने ही प्रांत की राजस्थानी नहीं। राजस्थान की विधानसभा में राजस्थानी भाषा के संस्कारों से ही पला-बढ़ा और राजस्थानी में ही वोट मांग-मांग कर विधानसभा तक पहुंचा एक विधायक 22 भारतीय भाषाओं में भाषण देने का अधिकार तो रखता है, मगर अपनी मातृभाषा राजस्थानी में शपथ तक नहीं ले सकता।
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राजस्थान दिवस विशेष
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